पिता का अहसास तो पारुल के लिए बस केवल तस्वीर और कागजों में ही जिंदा है। ढाई साल की मासूम बेटी को छोड़कर दुनिया छोड़कर जाने वाले पिता के सपने की जानकारी दादा-दादी से हुई। उन्होंने ही उसे पाल-पोसकर बड़ा किया। पिता के सपने को पूरा करने के लिए पारुल ने आसान काम वाली नौकरी न करके स्टेशन मास्टर का चुनौती भरा काम चुना। कठिन परिस्थितियों में भी ट्रेनों का सुरक्षित संचालन करने के साथ यात्रियों की समस्या का समाधान सहजता से निभाकर पारुल दूसरों के लिए उदाहरण पेश कर रही हैं।
साहस और संघर्ष की गाथा
संघर्ष और साहस से भरी है पारुल की कहानी पारुल की कहनी जितना संघर्षपूर्ण है, उतना ही साहस से भरी भी है। पारुल के पिता बृजेश कुमार मिश्रा मुरादाबाद रेल मंडल के रोजा (शाहजहापुर) स्टेशन पोर्टर के पद पर पर तैनात थे। पाच मार्च 1991 को ड्यूटी के दौरान ट्रेन की चपेट में आकर उनकी मौत हो गई थी। उस समय पारुल की उम्र ढाई साल की थी। जबकि मा की मौत एक दिसंबर 1990 को हो चुकी थी। इतनी छोटी उम्र में माता-पिता के प्यार का अहसास भी ठीक से नहीं कर पाई पारुल के पालन-पोषण की जिम्मेदारी दादा-दादी के कंधों पर आ गई। थोड़ी समझदार हुई तो दादा-दादी से पिता की नौकरी और मौत के बारे में जानकारी हुई।
पिता का सपना था बेटी दे उन्हें आदेश
उन्होंने बताया कि बृजेश पोर्टर जैसी रिस्क वाली नौकरी करते थे। पिता की इच्छा थी कि बेटी बड़ी होकर स्टेशन मास्टर बने और उन्हें आर्डर दे। इसके बाद से पारुल स्टेशन मास्टर बनने का सपना देखने लगी। स्नातक की पढ़ाई के लिए कानपुर से मौसी के पास शाहजहापुर गईं। शाहजहापुर में स्टेशन मास्टर व पोर्टर के कार्य की जानकारी करने लगी। जब घर वालों को बताया कि वह स्टेशन मास्टर बनेगी तो सभी ने उसे समझाया कि इसमें बहुत कठिनाईया हैं। जंगल के स्टेशनों पर भी रह कर अकेले ट्रेन का संचालन करना पड़ता है। हंगामा करते यात्रियों का भी सामना करना पड़ता है।
जिद करके बनी स्टेशन मास्टर
स्नातकोत्तर की पढ़ाई शुरू करने के साथ ही पारुल ने मृतक आश्रित में नौकरी के लिए रेलवे में आवेदन किया। रेलवे ने 2016 में पारुल मिश्रा को सीनियर क्लर्क के पद पर तैनात कर दिया। पारुल ने सीनियर क्लर्क बनने के बजाय स्टेशन मास्टर के पद पर नौकरी की माग की। अधिकारियों ने स्टेशन मास्टर की चुनौती को देखते हुए अन्य विभाग के सुपरवाइजर के पद पर नौकरी देने की बात कही, लेकिन पारुल पिता के सपने के साथ पुरुष के एकाधिकार वाले स्टेशन मास्टर के पद पर काम करने की जिद पर अड़ी रही।
सफलतापूर्वक ट्रेनों का कराती हैं संचालन
पारुल बताती हैं कि मुरादाबाद मंडल मुख्यालय का स्टेशन होने के कारण स्टेशन मास्टर की जिम्मेदारी बहुत कठिन है। इसके बाद भी ट्रेनों व मालगाड़ी का सफलतापूर्वक संचालन करती हैं। यात्रियों की समस्या के समाधान के लिए लगातार जूझना पड़ता है। पुरुषों के बीच अकेले काम करने में कोई परेशानी नहीं होती है। पुरुष वर्चस्व को दे रही चुनौती रेलवे में कुछ कार्य ऐसे हैं जो 150 वर्ष के इतिहास में केवल पुरुषों के लिए माने गए। अब महिलाएं धीरे-धीरे पुरुष के एकाधिकार माने जाने वाले क्षेत्र में भी काम करने की चुनौती स्वीकार कर रही हैं। रेलवे में चालक, गार्ड, स्टेशन मास्टर, गैंगमैन, गेटमैन जैसे कठिन पदों पर महिलाएं काम कर सफलता की नई गाथा लिख रही हैं। मुरादाबाद की स्टेशन मास्टर पारुल मिश्रा ने इसका एक उदाहरण भर हैं।
Source - Jagran